tag:blogger.com,1999:blog-371109022024-02-20T01:38:23.316-08:00प्रमोदन...कुछ कवितायेंकैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.comBlogger19125tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-20907790245555351622011-04-15T00:44:00.000-07:002011-04-16T04:14:59.154-07:00पुराने घर में<span style="font-size:85%;">खाली पड़े पुराने घर में बरस बाद आया </span><br /><span style="font-size:85%;">आने लगी आवाजें जानी पहचानी </span><br /><span style="font-size:85%;">कुछ अजनबी </span><br /><span style="font-size:85%;">चिड़िया आ बैठी किवाड़ पर चहकने </span><br /><span style="font-size:85%;">किचन में बड़ा-सा काकरोच </span><br /><span style="font-size:85%;">खाने की उम्मीद के साथ </span><br /><span style="font-size:85%;">मूछ के बालों को साफ़ कर रहा है </span><br /><span style="font-size:85%;">छिपकली को भी पता चल गया है </span><br /><span style="font-size:85%;">वह हरकत में नहीं है </span><br /><span style="font-size:85%;">पिछले दिनों मेरी कविताएँ चट कर गई </span><br /><span style="font-size:85%;">दीमक अभी निराश है </span><br /><span style="font-size:85%;">दरवाजे आवाज करने लगे है </span><br /><span style="font-size:85%;">दीवारें शांत है </span><br /><span style="font-size:85%;">घडी की टिकटिक बंद है </span><br /><span style="font-size:85%;">तस्वीरों वाली खाली जगह </span><br /><span style="font-size:85%;">प्रश्नचिन्ह बन गई है </span><br /><span style="font-size:85%;">पेडपौधे मुरझा गए है </span><br /><span style="font-size:85%;">फूल नदारद है </span><br /><span style="font-size:85%;">बाहर तीखे स्वरों में </span><br /><span style="font-size:85%;">लड़ने की आवाजें है </span><br /><span style="font-size:85%;">बच्चों के हंसने की आवाज अब नही आ रही है </span><br /><span style="font-size:85%;">शायद वे बड़े हो गए है </span><br /><span style="font-size:85%;">अड़ोसी-पड़ोसी व्यस्त है पहले की तरह </span><br /><span style="font-size:85%;">अँधेरा अधिक </span><br /><span style="font-size:85%;">रोशनी कम है </span><br /><span style="font-size:85%;">घटते मूल्यों की तरह </span><br /><span style="font-size:85%;">परस्पर प्यार की कमी हो गई है </span><br /><span style="font-size:85%;">फिर भी पुराना घर </span><br /><span style="font-size:85%;">नए घर से अच्छा लगने लगा है। </span><span style="font-size:85%;">---- </span>कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-27118837439274326812009-01-01T02:33:00.000-08:002009-01-20T23:23:57.886-08:00नव-वर्ष का तपाकअंग्रेजी का नया वर्ष आया<br />एक जनवरी को<br />शुभकामनाओं के कई हाथ मिले<br />कुछ हाथ ऐसे भी थे <br />जो शरीर और आत्मा में <br />भेद करना जानते थे<br />केवल औपचारिकता के संवाहक,<br /><br />उन हाथों के लिये <br />जिनसे मिलकर<br />अन्तर्मन में प्रसन्नता प्रस्फुटित हुई<br />निश्चित ही <br />वे मेरे लिये शुभकामनाओं के हाथ थे,<br /><br />मुझे उनसे भी<br />आज शिकायत नहीं <br />जिन्होंने औपचारिकता के बहाव में<br />अपने हाथ बढा दिए,<br /><br />हर्ष और स्नेह के हाथ हों या <br />ईर्ष्या या द्वेष के<br />मैं चाहता हूं<br />सब हाथ मिलकर <br />एक मुटठी बन जायें<br />मेरे भारत के लिए।<br />------कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-71700531369424688432007-10-04T02:12:00.011-07:002007-10-04T02:33:17.496-07:00बेटावह मेरा बेटा है<br />मुझे पापा कहता है<br />मैं उसे बेटा कहता हूं<br /><br />देखकर लोग कहते हैं<br />मेरे जैसा दिखता है<br />पहले भी कहते थे<br /><br />दिखता ही नहीं था-<br />मेरे जैसा रहता था<br />मेरे जैसे कपडे पहनता था<br />मेरे जैसे चलता था<br />मेरे जैसी बात करता था<br />मेरी नकल करता था<br /><br />अब बडा हो गया है<br />मेरे जैसा दिखता है<br />मुझे पापा कहता है<br />मैं उसे बेटा कहता हूं<br /><br />अब उसे मेरे जैसे दिखना<br />मेरे जैसे रहना<br />मेरे जैसे कपडे पहनना<br />मेरे जैसे चलना<br />मेरे जैसी बात करना<br />मेरी नकल करना<br />अच्छा नहीं लगता।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-25938851832526631542007-05-30T03:00:00.000-07:002007-05-30T03:40:11.336-07:00झाडूखजूर के कांटों भरे पत्ते<br />अरहर या घास<br />कचरा होने जैसे<br />अंश से बनी झाडू<br /><br />कचरा साफ़ करते-करते<br />अन्त में कचरे में<br />विलीन हो जाती<br />और दे जाती संकेत <br />अपने होने का<br />अपने सार्थक जीवन का।<br /><br />अपना आकार पाने पर <br />उन घरों को देती<br />दो-जून रोटी<br />जो बनाते झाडू।<br /><br />घर-घर पहुंच<br />साफ़-सफ़ाई, स्वास्थ्य<br />और सुन्दरता देती झाडू।<br /><br />अडियल कचरा<br />जो घर के बाहर जाने का नाम न ले<br />और छुप जाये दरवाजे के कोनों में<br />उसे मनाने<br />छोड जाती अपना एक तिनका<br />और दूसरे दिन समेटकर <br />ले जाती झाडू।<br /><br />महल से झोपडी<br />और मंदिर से मस्जिद तक<br />एक-सी काम आती झाडू।<br /><br />लक्ष्मी पूजा में<br />पूजी जाती<br />धन-व्रद्धि करती झाडू।<br /><br />कचरे से बनी<br />कचरा हटाती<br />और कचरे में ही<br />विलीन हो जाती झाडू।<br /><br />झाडू-<br />कचरे का वह अंश है<br />जो अपने अंशी में<br />विलीन होने तक<br />अपने अंश के साथ <br />हर रोज<br />मेल-मिलाप रखती<br />और बिदा भी<br />उसी के साथ होती।<br /><br />झाडू-<br />संस्क्रति है जीवन की<br />देती है संदेश जीने का<br />इसलिए-<br />झाडू और झाडू लिये हाथ<br />तिरस्कार के नहीं<br />सम्मान के हकदार है।<br />-----कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-47063976516361648522007-04-30T03:29:00.000-07:002007-04-30T03:50:54.062-07:00पतझडजेठ का महिना <br />आग बरसाता सूरज<br />सूखी-तपती धरती<br />मृतप्राय नदियां<br />उजडे जंगल<br />पानी तलाशते प्राणी<br />हवा के रुख के साथ उडते-<br />पेडों से झडे पत्ते<br />अपनी जीवन यात्रा के अन्तिम पडाव पर <br />आपस में बतियाते-<br />खर्र-खर्र-<br />बचपन से लेकर<br />अभी तक के अनुभव सुनाते।<br /><br />खूशबू, कोमलता<br />और सुन्दरता देते-देते<br />सूखे-झरे-<br />पर टूटे नहीं।<br /><br />आज भी <br />तत्पर <br />पदचाप पर बोलते-<br />कोई हमारे लायक सेवा?<br /><br />जलाने पर <br />आग और धुंआ<br />और दफनाने पर <br />धरती को उर्वरा देते<br />पेड से पतझड तक<br />देते ही देते।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1175088276917759292007-03-28T06:58:00.000-07:002007-03-29T04:53:20.960-07:00वो जो बच्चा है स्लेट पर चित्र बनातावो जो बच्चा है <br />स्लेट पर चित्र बनाता<br />कभी बापू<br />कभी चाचा<br />कभी सुभाष चन्द्र बोस<br />और कभी ओसामा-बिन-लादेन को<br />अपनी कल्पना से<br />स्लेट पर उकेरता।<br /><br />उसने आज भी<br />चित्र बनाये हैं-<br />बापू के हाथ में <br />लाठी की जगह फरसा<br />सुभाष के हाथ में<br />हथगोला<br />और लादेन के हाथ में<br />कमन्डल और माला।<br /><br />शायद बडी हुई दाढी ने<br />उसे भ्रमित किया है।<br /><br />वो जो बच्चा है<br />स्लेट पर चित्र बनाता<br />जैसा बनाता<br />वैसा सच मानता।<br /><br />उसे नहीं पता<br />फरसे, लाठी, हथगोले और<br />कमन्डल का सच<br />उसे नहीं पता<br />देश के भक्षक और देश के रक्षक का सच्।<br /><br />उसकी मासूम समझ का चित्र<br />काश्।<br />आनेवाले कल का<br />सच बन जाय<br />और ओसामा के आतंक से<br />भयभीत देशों को निजात मिल जाय्।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1165824175128827452006-12-10T23:25:00.000-08:002006-12-13T05:36:08.523-08:00मेरे सपने मेंआदत के मुताबिक <br />समस्यायें आमंत्रित कर<br />उनका समाधान करना<br />यह सेवा, मेरे शौक में तब्दील हो गई।<br />तब एक दिन सपने में<br />भगवान शिव ने दर्शन दिये।<br /><br />यहां तक तो ठीक-<br />लेकिन देवताओं का पूरा प्रतिनिधिमंड़ल<br />मेरे सामने समस्यायें रखने लगा।<br />मैं अचरज में था और सुन रहा था।<br /><br />शिवजी बोले-<br />हम बहुत परेशान हैं<br />भक्त आते हैं<br />पूजा-अर्चना कर<br />अपनी समस्यायें/मानताएं रखते रहते हैं<br />हम चुपचाप सुनते हैं,<br />कुछ नहीं बोलते।<br />लेकिन, कब तक सुनते रहेंगे-<br />उनकी बेवकूफ़ी और स्वार्थभरी बातें।<br /><br />ऐसा नहीं कि-<br />हम बोल नहीं सकते,<br />हम बोल सकते हैं।<br />ड़र है, हमारे बोलने को भी<br />स्वार्थी भक्त भुना लेंगे,<br />अपना उल्लू सीधा कर लेंगे।<br />अपात्र को<br />जो न मिलना चाहिए, सहज मिल जायेगा<br />और पात्र की भावनाएं कुण्ठित हो जायेगी<br />हम अधिक दुखी हो जायेंगे।<br />यह सुनकर मेरी नींद खुल गई।<br /><br />मैं सोचने लगा-<br />यह कैसा सपना है?<br /><br />थोड़ी देर बाद-<br />फ़िर नींद लगी तो देखा-<br />शिवजी भक्तों के बीच खड़े<br />सभी को ड़ांटते हुए<br />कह रहे थे-<br />आप अपना काम तो करते नहीं<br />हमसे अपने काम की अपेक्षा करते हैं<br />इस अकर्मण्यता से हम बहुत दुखी हैं।<br /><br />अभी तो मंदिर में बैठ सुन भी रहे हैं<br />आगे से यदि यही रवैया रहा तो<br />मानता पूरी करने की चुनौती के साथ<br />हम मानव को मंदिर में विराजित कर देंगे।<br /><br />इतने में क्रष्ण मंदिर से<br />घंटी की ध्वनि सुनाई दी<br />और मेरी नींद खुल गई।<br /><br />फ़िर सुनाई दिया-<br />कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन------।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1165477334620058072006-12-06T23:16:00.000-08:002007-02-03T00:49:52.770-08:00वह पीला कोटट्वीट का<br />राजेश खन्ना स्टाईल का<br />बेल्ट वाला<br />वह पीला कोट्।<br /><br />जिसे <br />पाने के लिये<br />नहीं पढने की जिद<br />और <br />खर्च के मिले<br />पैसे बचाने से लेकर<br />क्या नहीं किया था मैंने।<br /><br />बिना पहने भी <br />कल्पना में<br />कई बार <br />शीशे के सामने<br />अपने को <br />कोट पहने देखा।<br />आज हंस रहा है मुझ पर<br />वह पीला कोट्।<br /><br />आखिर<br />जिद में <br />पिताजी को हराकर<br />जीत ही गया मैं।<br />पैसों की तंगी के बाद भी<br />पिताजी ने<br />दिला ही दिया मुझे<br />वह पीला कोट्।<br /><br />वह कोट<br />पाने तक<br />मेरे ज़हन में रहा<br />और पाने के<br />35 बरस बाद<br />आज भी है<br />मेरे ज़हन में।<br />मुझ पर हंसते हुए<br />मेरे ज़हन में<br />किसी और को<br />आने नहीं देता<br />मेरे ज़हन में<br />वह पीला कोट्।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1164786243284325032006-11-28T23:18:00.000-08:002006-11-28T23:44:03.326-08:00परीक्षाउसने अभी-अभी<br />खुले आसमान के नीचे<br />एक खूबसूरत बच्चे को<br />जन्म दिया है।<br /><br />जन्म देने की खुशी तक<br />पहुंचने के पहले ही<br />बच्चे की सुरक्षा<br />भारी चुनौती बन गई-<br />उसके लिये।<br /><br />बस्ती के कुत्ते<br />अपनी क्रुरता के साथ<br />इकट्ठे हो<br />बच्चे पर झपटने लगे।<br /><br />प्रसव-पीड़ा<br />और थकान के बावजूद<br />बच्चे को बचाने का<br />अथक प्रयास्।<br /><br />कुदरत की बनाई दुनियां में<br />मां की ममता<br />और उत्पीड़ित मात्रत्व का<br />अनुपम - मजबूत प्रमाण-<br />पुजारीजी की गैय्या-<br />"गंगा"-<br />बड़ी कुशलता के साथ<br />प्रस्तुत कर रही थी।<br /><br />ममत्व की परीक्षा में<br />आखिर वह उत्तीर्ण हो ही गई।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1164094750157605542006-11-20T23:06:00.000-08:002007-06-14T23:25:21.802-07:00दर्द का रिश्तामुखियाजी<br />जिनकी सब मानते-<br />वे बड़े थे<br />लेकिन कम पढे थे<br />केवल अनुभव की डिग्री थी<br />उनके पास्।<br />जिनसे लगी रहती थी<br />सभी को आस्।<br />एक दिन मोहल्ले के बच्चों ने<br />शरारत में किये<br />उल्टे-सीधे सवाल।<br />उनके हो गये <br />बुरे हाल।<br />बच्चे प्रश्न पूछते रहे<br />वे जवाब देते रहे<br />अपनी मुखियागिरी की<br />हिफ़ाज़त करते रहे।<br /><br />एक बच्चा बोला-<br />बताओ दद्दू <br />रिश्ते, दर्द से कि<br />रिश्ते से दर्द ?<br />दद्दू बोले बेटा-<br />जब तुम पैदा हुए-<br />तुम्हारी मां ने<br />बहुत पीडा सही<br />तो यह तो हुआ<br />दर्द का रिश्ता<br />अब तुम बड़े हो गये<br />मां-बाप को<br />यदि तुमसे<br />पहुंचे कोई कष्ट <br />तो यह हुआ रिश्ते का दर्द।<br /><br />फ़िर भी<br />मेरी बात समझ लो<br />दर्द में रिश्ता और<br />रिश्ते में ही<br />दर्द छुपा हुआ है।<br /><br />संसार में <br />बिना दर्द रिश्ता पोषित नहीं होता<br />और बिना रिश्ते के<br />दर्द नहीं होता।<br />दर्द रिश्ते की खुशी का प्रतीक है<br />और दर्द न हो तो<br />सुख की अनुभूति नहीं होती।<br />इसीलिए ये दोनों<br />हर घर में साथ-साथ रहते हैं।<br />------कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1163993798566975212006-11-19T19:17:00.000-08:002007-02-03T00:48:53.726-08:00बस्ती मेंबस्ती में घर <br />नहीं होता तो ठीक था।<br /><br />बच्चों के रोने की आवाज़<br />बड़ों के लड़ने की आवाज़<br />कुत्तों के भौकने की आवाज़<br />घर में आवाज़<br />बाजार में आवाज़<br />आवाज़ ही आवाज़ <br />आवाज़ से खलल पड़ता है।<br /><br />कौशिश करता हूं सहने की<br />सहता भी हूं।<br /><br />लेकिन मस्ज़िद से अज़ान और<br />मन्दिर से घन्टियों की आवाज़<br />मुझे सोने नहीं देती<br />याद दिला देती है - दंगे।<br />दंगे -1992 के दंगे।<br /><br />बस्ती में मस्ज़िद और मन्दिर<br />नहीं होता तो ठीक था।<br /><br />वैसे भी राम और रहिम <br />तो सर्वत्र व्याप्त है।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1163963225053002082006-11-19T10:11:00.000-08:002006-12-11T00:05:35.236-08:00यमराज अब प्रथ्वी परउस काल में<br />जब यमलोक में यमराज होते थे<br />तब अवध में राम, गौकुल में घनश्याम होते थे<br />नाम पुकारते ही <br />दौड़े आते थे हमारे भगवान-<br />दुखी की मदद को।<br /><br />आज प्रथ्वीलोक पर<br />राम और श्याम की बजाय<br />यमराज रह्ते है<br />अपने कारखाने को<br />चौबीसों घन्टे खुला रख,<br />प्रतिस्पर्र्धात्मक <br />उपलब्धियां देने के लिये।<br />चौबीसो घन्टे, हर पारी में<br />कारखाने में<br />बेरोक-टोक, काम चल रहा है।<br />सुना है,<br />और म्रत्यु के आंकड़े भी बताते है-<br />शायद कारखाने में <br />ओवर टाईम की भी व्यवस्था है।<br /><br />और हमारे<br />राम और श्याम-?<br />वे तो कई दिनों से लापता है।<br />उन्हें खोजने के लिये<br />दानव और मानव सभी<br />पुलिसिया अन्दाज मे <br />मुस्तैदी से लगे हुए हैं।<br />अभी तक उनकी<br />कोई खबर नहीं है<br />प्रयास जारी है।<br />वह देखो-<br />सतत प्रयास की<br />प्रमाणित ध्वनि-<br />"हरे राम, हरे क्रष्ण"<br />फ़िर सुनाई पड़ रही है।<br /><br />काश्। यह ध्वनि<br />स्वयं राम एवं क्रष्ण सुनले<br />और निर्बाध गति से चल रहा<br />यमराज का कारोबार ही<br />हमेशा-हमेशा के लिये बन्द हो जाये।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1163658352572848622006-11-15T22:12:00.000-08:002006-11-15T22:25:53.150-08:00पता ही नहीं चलामुझे पता ही नहीं चला<br />तुमने मेरी कविता में<br />प्रवेश कर लिया।<br />फ़िर कैसे नहीं-<br />विषयान्तर होता।<br /><br />देखने के बाद<br />हमेशा की तरह<br />सोचता रहा-<br />पहले दिन से आज तक्।<br /><br />आज, से डर लगने लगा<br />कल, लुभावना निडर था<br />वह कब हाथ छोड<br />दूर कहीं चला गया<br />पता ही नहीं चला।<br /><br />मै कल से लडा था<br />आज से लड रहा हूं<br />आगे भी लडूंगा<br />तुमसे हिम्मत है मुझ में।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1163062620765911972006-11-09T00:17:00.000-08:002007-06-14T23:28:15.327-07:00नेताजी की प्रतिमा का अनावरण<span style="font-family:Arial;">बधाई नेताजी </span><br /><span style="font-family:Arial;">प्रतिमा का अनावरण हो गया</span><br /><span style="font-family:Arial;">भोपाल में पहला पुष्प </span><br /><span style="font-family:Arial;">आपको अर्पण हो गया।</span><br /><span style="font-family:Arial;">आपकी याद बाकी थी,</span><br /><span style="font-family:Arial;">इतिश्री-</span><br /><span style="font-family:Arial;">कर्णधारों का दर्पण हो गया।</span><br /><span style="font-family:Arial;"></span><br /><span style="font-family:Arial;">आपका नारा</span><br /><span style="font-family:Arial;">तुम मुझे खून दो</span><br /><span style="font-family:Arial;">मैं तुम्हें आजादी दूंगा</span><br /><span style="font-family:Arial;">आज मात्र बच्चों की किताब में पढाया जाता है</span><br /><span style="font-family:Arial;">और कभी-कभी स्वार्थ की जुबान से दोहराया जाता है।</span><br /><span style="font-family:Arial;"></span><br /><span style="font-family:Arial;">अच्छा हुआ </span><span style="font-family:Arial;">आप नहीं हो</span><br /><span style="font-family:Arial;">होते तो नारे की विक्रति देख बहुत पछताते।</span><br /><span style="font-family:Arial;">आजाद भारत में </span><br /><span style="font-family:Arial;">कोई </span><span style="font-family:Arial;">किसी के लिये खून नहीं देता है</span><br /><span style="font-family:Arial;">छोटी-सी बात पर </span><br /><span style="font-family:Arial;">किसी का भी </span><br /><span style="font-family:Arial;">खून ले लेता है,</span><span style="font-family:Arial;">खून ले लेता है, खून ले लेता है।</span><br /><span style="font-family:Arial;"></span><br /><span style="font-family:Arial;"></span><br /><span style="font-family:Arial;"></span><br /><span style="font-family:Arial;"></span>कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1163056149870348262006-11-08T22:34:00.000-08:002008-12-12T01:12:37.303-08:00याद आते है वे दिनपत्थरों की<br />उबड-खाबड गलियां<br />मिट्टी के घर<br />धूल से सने सामान<br />आधे-अधूरे फटे कपडे<br />टूटी छतरी<br />संधी चप्पल<br />खन्डहर स्कूल<br />छात्र-मित्र<br />निश्छल-भाव-<br />अभाव के दिन<br />याद आते है वे दिन्।<br /><br />ताजा मठा<br />बासी रोटी<br />लाल मिर्च<br />कुटी प्याज<br />रोटी पर रखी-<br />लहसून की चटनी<br />मित्रों के साथ-<br />खाने के दिन<br />याद आते है वे दिन्।<br /><br />स्कूल<br />छुट्टी की घंटी<br />खेत-खलिहान<br />तालाब का किनारा<br />हरी-हरी घास<br />चरवाई गायों की<br />ज्वार के भूट्टे के तौल<br />खरीदकर गाजर-<br />खाने के दिन<br />याद आते है वे दिन्।<br /><br />गांव की चौपाल<br />गौफ़न, गोटी,<br />गिल्ली डन्डे के खेल<br />घर-घर की कहानी<br />मिट्टी के खिलौने<br />जामुन के दौने<br />गन्ने की चरखी<br />निकलता ताजा गुड-<br />खाने के दिन<br />याद आते है वे दिन।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1162886228137752792006-11-06T23:44:00.000-08:002008-12-12T01:12:37.303-08:00मेरा और उनका घरमेरा घर<br />ईंट, रेत, चूने का।<br />घर में कमरे<br />खिडकियां।<br /><br />खिडकियां अधिक<br />रौशनी के लिये<br />धूप, हवा और<br />छोटे-छोटे परिन्दों<br />और बगिचे के फ़ूलों की<br />खुशबू आने के लिये।<br /><br />दरवाजा केवल एक<br />जो अन्दर को खुलता है।<br /><br />उनके घर में भी है<br />यही सब<br />लेकिन दरवाजे अधिक है<br />बाहर को खुलने वाले।<br /><br />अन्तर यही है<br />मेरे और उनके घर में।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1162737216955384112006-11-05T05:51:00.000-08:002008-12-12T01:12:37.303-08:00बच्चे बडे हो गयेलगातार भागते भागते<br />बावन का हो गया हूं<br />बच्चे भी बडे हो गये हैं।<br />इतने बडे कि मेरी बातें<br />अब उन्हें छोटी लगने लगी है।<br /><br />यह जानते हुए कि उनके लिए<br />मतलब नहीं है मेरी बातों का-<br />मैं अपनी बातें रखता रहता हूं-<br />उन्हें यह न लगे कि-<br />मैं पिता के फ़र्ज में गफ़लत हूं।<br /><br />मुझे अपने पिता से मिला है<br />इसलिये डाकिये की भांति डाक लगाता हूं<br />यह सोचकर कि-<br />यह बेरंग लिफ़ाफ़ा न बने<br />जिसे लौटा दिया जाय्।<br /><br />मैंने भी अनुभव की वसीयत से पाया है-<br />संस्कारों का एक लिफ़ाफ़ा<br />जिसे धरोहर के रुप में<br />आज तक संभाले रखा है।<br />उसे बेरंग डाक की तरह<br />पिता को नहीं लौटाया है।<br /><br />एक दिन जरुर आयेगा<br />मेरे बच्चे भी मुझे न लौटाकर<br />अपने बच्चों के लिये<br />संभालकर रख लेंगे उसे<br />अनुभव की पोटली में।<br />वह दिन-<br />मेरी खुशी की<br />दीवाली का दिन होगा।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1162632801958904072006-11-04T01:00:00.000-08:002008-12-12T01:12:37.304-08:00जीना ही पडता हैकल की बात है-<br />जब हम पीछे छोडकर आये-<br />गिल्ली डन्डे, गेन्द, कबड्डी,<br />धूप-छाव, पकडा-पाटी।<br />निश्छल हंसी, निश्छल प्रेम और<br />निराले खेल्।<br /><br />किसका डण्डा, किसकी गिल्ली,<br />किसकी गेन्द और किसका घर<br />सब कुछ अपना होता था।<br /><br />आज-<br />आज सपना भी अपना नहीं है।<br /><br />आंखें हमारी देखती है<br />सपने दूसरे के होते हैं।<br /><br />अधिकार जताने वाले-<br />अधिकार देने वाले दूसरे।<br />अपनी खुशी के लिये जीना तो दूर<br />मरना भी मुश्किल होता है।<br /><br />सर पर बोझ और<br />फ़ेहरिस्त जिम्मेदारी की-<br />पूरा किये बगैर<br />कैसे कोई मर सकता है<br />जीना ही पडता है।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-37110902.post-1162630397140777282006-11-04T00:32:00.000-08:002008-12-12T01:12:37.305-08:00नारीउलाहने<br />पैदा होते ही<br />सह्कर बड़ी होती<br />सहती ही रहती ताउम्र।<br /><br />पुत्री के रुप में<br />बहन के रुप में<br />पत्नी के रुप में<br />बहू के रुप में<br />मां के रुप में-<br />सहना और जीना।<br /><br />देखकर-<br />देखते-देखते<br />काश<br />सहना आ जाये सभी को-<br />सहज हो जाए जीवन्।कैलाश चन्द्र दुबेhttp://www.blogger.com/profile/16291758389938652685noreply@blogger.com0