...कुछ कवितायें

परिचय

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भोपाल, मध्य प्रदेश, India

19.11.06

बस्ती में

बस्ती में घर
नहीं होता तो ठीक था।

बच्चों के रोने की आवाज़
बड़ों के लड़ने की आवाज़
कुत्तों के भौकने की आवाज़
घर में आवाज़
बाजार में आवाज़
आवाज़ ही आवाज़
आवाज़ से खलल पड़ता है।

कौशिश करता हूं सहने की
सहता भी हूं।

लेकिन मस्ज़िद से अज़ान और
मन्दिर से घन्टियों की आवाज़
मुझे सोने नहीं देती
याद दिला देती है - दंगे।
दंगे -1992 के दंगे।

बस्ती में मस्ज़िद और मन्दिर
नहीं होता तो ठीक था।

वैसे भी राम और रहिम
तो सर्वत्र व्याप्त है।

6 comments:

संजय बेंगाणी said...

काश! ऐसा होता.

Unknown said...

मस्ज़िद और मन्दिर में जाने वालों के
...मन में परम बसता तो ठीक था

Prabhakar Pandey said...

बिलकुल सही लिखा है आपने ।

बच्चनजी की याद आ गई-झगड़े कराते मंदिर,मस्जिद......

लेकिन एक बात और कहना है मुझे,
मस्ज़िद और मन्दिर ने कभी लड़ना नहीं सिखाया,
पंडित,मुल्ला,नेताओं ने धर्म के नाम पर लड़ाया,
ये मस्ज़िद,मन्दिर,गिरिजाघर तो प्रेम के प्रतीक हैं,
इन्होनें तो समाज को सदा एकता का पाठ पढ़ाया ।

rachana said...

बहुत खूब!

Pratik Pandey said...

बढिया... लगता है कि इन सभी आवाज़ों के बीच इंसान के भीतर की आवाज़ कहीं दब के रह गई है।

अनूप शुक्ल said...

बात तो आपकी ठीक है लेकिन अगर बस्ती में घर नहीं होगा तो 'बस्ती' काहे की होगी?

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