प्रमोदन

...कुछ कवितायें

परिचय

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भोपाल, मध्य प्रदेश, India

15.4.11

पुराने घर में

खाली पड़े पुराने घर में बरस बाद आया
आने लगी आवाजें जानी पहचानी
कुछ अजनबी
चिड़िया आ बैठी किवाड़ पर चहकने
किचन में बड़ा-सा काकरोच
खाने की उम्मीद के साथ
मूछ के बालों को साफ़ कर रहा है
छिपकली को भी पता चल गया है
वह हरकत में नहीं है
पिछले दिनों मेरी कविताएँ चट कर गई
दीमक अभी निराश है
दरवाजे आवाज करने लगे है
दीवारें शांत है
घडी की टिकटिक बंद है
तस्वीरों वाली खाली जगह
प्रश्नचिन्ह बन गई है
पेडपौधे मुरझा गए है
फूल नदारद है
बाहर तीखे स्वरों में
लड़ने की आवाजें है
बच्चों के हंसने की आवाज अब नही आ रही है
शायद वे बड़े हो गए है
अड़ोसी-पड़ोसी व्यस्त है पहले की तरह
अँधेरा अधिक
रोशनी कम है
घटते मूल्यों की तरह
परस्पर प्यार की कमी हो गई है
फिर भी पुराना घर
नए घर से अच्छा लगने लगा है। ----

1.1.09

नव-वर्ष का तपाक

अंग्रेजी का नया वर्ष आया
एक जनवरी को
शुभकामनाओं के कई हाथ मिले
कुछ हाथ ऐसे भी थे
जो शरीर और आत्मा में
भेद करना जानते थे
केवल औपचारिकता के संवाहक,

उन हाथों के लिये
जिनसे मिलकर
अन्तर्मन में प्रसन्नता प्रस्फुटित हुई
निश्चित ही
वे मेरे लिये शुभकामनाओं के हाथ थे,

मुझे उनसे भी
आज शिकायत नहीं
जिन्होंने औपचारिकता के बहाव में
अपने हाथ बढा दिए,

हर्ष और स्नेह के हाथ हों या
ईर्ष्या या द्वेष के
मैं चाहता हूं
सब हाथ मिलकर
एक मुटठी बन जायें
मेरे भारत के लिए।
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4.10.07

बेटा

वह मेरा बेटा है
मुझे पापा कहता है
मैं उसे बेटा कहता हूं

देखकर लोग कहते हैं
मेरे जैसा दिखता है
पहले भी कहते थे

दिखता ही नहीं था-
मेरे जैसा रहता था
मेरे जैसे कपडे पहनता था
मेरे जैसे चलता था
मेरे जैसी बात करता था
मेरी नकल करता था

अब बडा हो गया है
मेरे जैसा दिखता है
मुझे पापा कहता है
मैं उसे बेटा कहता हूं

अब उसे मेरे जैसे दिखना
मेरे जैसे रहना
मेरे जैसे कपडे पहनना
मेरे जैसे चलना
मेरे जैसी बात करना
मेरी नकल करना
अच्छा नहीं लगता।

30.5.07

झाडू

खजूर के कांटों भरे पत्ते
अरहर या घास
कचरा होने जैसे
अंश से बनी झाडू

कचरा साफ़ करते-करते
अन्त में कचरे में
विलीन हो जाती
और दे जाती संकेत
अपने होने का
अपने सार्थक जीवन का।

अपना आकार पाने पर
उन घरों को देती
दो-जून रोटी
जो बनाते झाडू।

घर-घर पहुंच
साफ़-सफ़ाई, स्वास्थ्य
और सुन्दरता देती झाडू।

अडियल कचरा
जो घर के बाहर जाने का नाम न ले
और छुप जाये दरवाजे के कोनों में
उसे मनाने
छोड जाती अपना एक तिनका
और दूसरे दिन समेटकर
ले जाती झाडू।

महल से झोपडी
और मंदिर से मस्जिद तक
एक-सी काम आती झाडू।

लक्ष्मी पूजा में
पूजी जाती
धन-व्रद्धि करती झाडू।

कचरे से बनी
कचरा हटाती
और कचरे में ही
विलीन हो जाती झाडू।

झाडू-
कचरे का वह अंश है
जो अपने अंशी में
विलीन होने तक
अपने अंश के साथ
हर रोज
मेल-मिलाप रखती
और बिदा भी
उसी के साथ होती।

झाडू-
संस्क्रति है जीवन की
देती है संदेश जीने का
इसलिए-
झाडू और झाडू लिये हाथ
तिरस्कार के नहीं
सम्मान के हकदार है।
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30.4.07

पतझड

जेठ का महिना
आग बरसाता सूरज
सूखी-तपती धरती
मृतप्राय नदियां
उजडे जंगल
पानी तलाशते प्राणी
हवा के रुख के साथ उडते-
पेडों से झडे पत्ते
अपनी जीवन यात्रा के अन्तिम पडाव पर
आपस में बतियाते-
खर्र-खर्र-
बचपन से लेकर
अभी तक के अनुभव सुनाते।

खूशबू, कोमलता
और सुन्दरता देते-देते
सूखे-झरे-
पर टूटे नहीं।

आज भी
तत्पर
पदचाप पर बोलते-
कोई हमारे लायक सेवा?

जलाने पर
आग और धुंआ
और दफनाने पर
धरती को उर्वरा देते
पेड से पतझड तक
देते ही देते।

28.3.07

वो जो बच्चा है स्लेट पर चित्र बनाता

वो जो बच्चा है
स्लेट पर चित्र बनाता
कभी बापू
कभी चाचा
कभी सुभाष चन्द्र बोस
और कभी ओसामा-बिन-लादेन को
अपनी कल्पना से
स्लेट पर उकेरता।

उसने आज भी
चित्र बनाये हैं-
बापू के हाथ में
लाठी की जगह फरसा
सुभाष के हाथ में
हथगोला
और लादेन के हाथ में
कमन्डल और माला।

शायद बडी हुई दाढी ने
उसे भ्रमित किया है।

वो जो बच्चा है
स्लेट पर चित्र बनाता
जैसा बनाता
वैसा सच मानता।

उसे नहीं पता
फरसे, लाठी, हथगोले और
कमन्डल का सच
उसे नहीं पता
देश के भक्षक और देश के रक्षक का सच्।

उसकी मासूम समझ का चित्र
काश्।
आनेवाले कल का
सच बन जाय
और ओसामा के आतंक से
भयभीत देशों को निजात मिल जाय्।

10.12.06

मेरे सपने में

आदत के मुताबिक
समस्यायें आमंत्रित कर
उनका समाधान करना
यह सेवा, मेरे शौक में तब्दील हो गई।
तब एक दिन सपने में
भगवान शिव ने दर्शन दिये।

यहां तक तो ठीक-
लेकिन देवताओं का पूरा प्रतिनिधिमंड़ल
मेरे सामने समस्यायें रखने लगा।
मैं अचरज में था और सुन रहा था।

शिवजी बोले-
हम बहुत परेशान हैं
भक्त आते हैं
पूजा-अर्चना कर
अपनी समस्यायें/मानताएं रखते रहते हैं
हम चुपचाप सुनते हैं,
कुछ नहीं बोलते।
लेकिन, कब तक सुनते रहेंगे-
उनकी बेवकूफ़ी और स्वार्थभरी बातें।

ऐसा नहीं कि-
हम बोल नहीं सकते,
हम बोल सकते हैं।
ड़र है, हमारे बोलने को भी
स्वार्थी भक्त भुना लेंगे,
अपना उल्लू सीधा कर लेंगे।
अपात्र को
जो न मिलना चाहिए, सहज मिल जायेगा
और पात्र की भावनाएं कुण्ठित हो जायेगी
हम अधिक दुखी हो जायेंगे।
यह सुनकर मेरी नींद खुल गई।

मैं सोचने लगा-
यह कैसा सपना है?

थोड़ी देर बाद-
फ़िर नींद लगी तो देखा-
शिवजी भक्तों के बीच खड़े
सभी को ड़ांटते हुए
कह रहे थे-
आप अपना काम तो करते नहीं
हमसे अपने काम की अपेक्षा करते हैं
इस अकर्मण्यता से हम बहुत दुखी हैं।

अभी तो मंदिर में बैठ सुन भी रहे हैं
आगे से यदि यही रवैया रहा तो
मानता पूरी करने की चुनौती के साथ
हम मानव को मंदिर में विराजित कर देंगे।

इतने में क्रष्ण मंदिर से
घंटी की ध्वनि सुनाई दी
और मेरी नींद खुल गई।

फ़िर सुनाई दिया-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन------।

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